
कहते हैं कि आज भी जो श्रद्धापूर्वक संत जलाराम बापा की प्रार्थना करता है, उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। यह है उस महान संत की कहानी, जिन्होंने सेवा, भक्ति और करुणा की मिसाल कायम की।
श्रीराम के अनन्य भक्त, संत जलाराम बापा का जन्म 1799 में गुजरात के वीरपुर गांव में हुआ था। उनके पिता प्रधान ठक्कर और माता राजबाई थीं। उनकी मां का स्वभाव अत्यंत धार्मिक था, और वह साधु-संतों की सेवा में सदा तत्पर रहती थीं। संत रघुवीर दास, जो अक्सर उनके घर आते थे, उन्होंने राजबाई को आशीर्वाद दिया था कि उनका बेटा जलाराम साधु-सेवा और भक्ति की अनमोल मिसाल बनेगा।

सेवा की राह पर पहला कदम
जलाराम बापा का विवाह केवल 16 वर्ष की उम्र में वीरबाई से हुआ। हालांकि, उनका मन सांसारिक बंधनों से ऊपर उठकर ईश्वर-सेवा में समर्पित था। उनकी पत्नी वीरबाई ने भी बापा का साथ देने का निश्चय किया।
18 वर्ष की उम्र में जलाराम बापा ने संत भोजलराम को अपना गुरु माना। उनके गुरु ने उन्हें श्रीराम नाम का मंत्र दिया और उन्हें सेवा के मार्ग पर आगे बढ़ने का निर्देश दिया। बापा ने ‘सदाव्रत’ नाम की एक भोजनशाला शुरू की, जहाँ 24 घंटे साधु-संतों और गरीबों को भोजन कराया जाता था। यह उनकी निःस्वार्थ सेवा का एक अनमोल उदाहरण था।
भक्ति और चमत्कारों का सिलसिला
20 वर्ष की आयु तक जलाराम बापा की ख्याति चारों ओर फैल चुकी थी। लोग उनके साधारण स्वभाव, धैर्य और ईश्वर-प्रेम को देख उनके श्रद्धालु बनते गए। उन्होंने कई बार ईश्वर की भक्ति में ऐसी घटनाओं का अनुभव किया, जिन्हें लोग चमत्कार मानते थे। इनमें बच्चों की बीमारियां ठीक होना, गरीबों की आर्थिक मदद से उनकी स्थिति में सुधार, और हर जरूरतमंद की सहायता प्रमुख रूप से देखी गई।
जलाराम बापा के दर पर हिन्दू-मुसलमान सभी लोग बिना भेदभाव के भोजन और आशीर्वाद पाने आते थे। उनका यह सर्वधर्म-समभाव उन्हें और भी प्रतिष्ठित बनाता था।
अनसुना करुणा का उदाहरण
एक बार वीरपुर में तीन अरबी युवक बापा के आग्रह पर भोजन करने आए। खाने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि उनके बैग में बंद पक्षी बापा की दृष्टि में हैं। बापा ने उनसे आग्रह किया कि वे बैग खोलें, और जैसे ही उन्होंने बैग खोला, पक्षी फड़फड़ाकर उड़ गए। बापा की करुणा ने युवकों का दिल जीत लिया और उन्हें आशीर्वाद भी दिया।
आखिरी समय और स्थायी सेवा का संदेश
बापा मानते थे कि “यह सेवा कार्य मुझे प्रभु ने सौंपा है, और वे ही इसका प्रबंध करते हैं।” 1934 में भयंकर अकाल के समय भी उन्होंने 24 घंटे लोगों को भोजन कराकर सेवा की। उनकी पत्नी वीरबाई और मां ने भी इस पुण्य कार्य में उनका साथ दिया।
सन् 1937 में, बापा ने प्रार्थना करते हुए इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया। लेकिन उनकी सेवा, भक्ति और प्रेम की विरासत आज भी जीवित है। कहते हैं कि जो सच्चे मन से जलाराम बापा की प्रार्थना करता है, उसकी समस्त इच्छाएं पूरी होती हैं।
संत जलाराम बापा का जीवन हमें बताता है कि निःस्वार्थ सेवा और ईश्वर-भक्ति ही सच्चे मानव धर्म हैं।
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